रुई के आसमान छूते भावों के कारण अब चिन्दी वाली रूई से चला रहे हैं काम
ब्यूरो, बेगमगंज (रायसेन)
सर्दी के मौसम में लोग देशी रूई अपनी रजाईयों में भरवाकर कड़कड़ाती सर्दी की ठिुठरन से बचने का उपाय करते थे, लेकिन अब देशी रूई गरीबों की पहुंच से दूर होती जा रही है आसमान छूते देशी रूई के भाव के कारण देशी रूई गरीब तो दूर की बात रही, एक मध्यमवर्गीय आदमी की पहुंच से भी दूर होती जा रही है। ऐसे में लोग मजबूरन चिन्दियों से बनी रूई से सर्दी से बचाव के उपाय कर रहे है। गौरतलब होगा कि, कुछ साल पहले तक इस क्षेत्र में देशी रूई की बहार रहती थी, वहीं अब नमूने के तौर पर देशी रूई दुकानों पर दिखाई देती है। क्षेत्र के मात्र पांच फीसदी लोग ही देशी रूई का उपयोग कर रहे है। पिछले साल के मुकाबले इस साल देशी रूई 20 रुपए किलो मंहगी है, मिल वाली एवं बोडा रूई के दाम सवा गुने तक हो गए हंै। इसके नतीजे में देशी के बजाय चिन्दी वाली या सिंथेटिक टेरीकाट रूई का चलन अधिक हो गया है। सिंथेटिक रूई बेगमगंज से लेकर सागर तरफ अधिक बिक रहीं है, जबकि रायसेन से लेकर भोपाल तक इसकी ब्रिकी न के बराबर है। महंगाई के असर से रजाई गद्दे भी अछूते नहीं रहे हैं, इनकी कीमतों में भी 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई है।
रूई की कीमत में अंतर पर एक नजर
रूई का नाम वर्तमान मूल्य पिछले वर्ष का मूल्य
देशी रूई 160 रु.. किलो 150 रु. किलो
चिन्दी वाली काली रूई 35 रु. किलो 25 रु. किलो थीं
चिन्दी वाली लाल रूई 40 रु. किलो 30 रु. कि लो थी
चिन्दी वाली सफेद रूई 40 रु. किलो 40 रु. किलो थी
मील वाली रूई 125 रु. किलो 110 रु. किलो थी
बोंडा रूई 135 रु. किलो 125 रु. किलो थी
(बनी पहलिया शीट रूई जिसे सिंथेटिक टेरीकाट रूई कहते है, बेगमगंज से लेकर बुदेंलखण्ड इलाके में ही बिक रही है, जिसका मूल्य 110 से 120 रु. किलो है, जबकि पिछले वर्ष 80 से 100 रु. किलो थी।)
खपत और खरीदी का गणित
बेगमगंज में रूई के करीब एक दर्जन व्यापारी हैं, जिनमें 8 व्यापारी प्रमुख हैं। इनमें रफीक मंसूरी, गुलाम मोहम्मद मंसूरी, मोहम्मद आकिल, साबिर मंसूरी, शरीफ भाई, इस्माईल भाई, इदरीस लोहर्रा वाले और हसीब ढिमरोली वाले हैं। यह सभी व्यापारी इन्दौर, उज्जैन, भोपाल और सागर से खरीद कर लाते हैं। सर्दी के सीजन में करीब 40 टन रूई सभी प्रकार की बिक्री होती है, जिसमें चिंदी वाली रूई 25 टन और बाकी सभी किस्म की 15 टन रुई होती है। दूसरी ओर, सारे रुई व्यापारी मिलकर भी एक टन देशी रुई नहीं बेच पाते, जबकि पूर्व के वर्षों तक 20 टन आसानी से बिक जाती थी। चिन्दी वाली रूई को तो लोग अपने तकियों तक भरवाना पंसद नहीं करते थे।
भरी-भरी रजाई गद्दों की बिक्री बढ़ी
मंहगाई के असर से अब रेडीमेड रजाई गद्दों का चलन बढ़ता जा रहा है। तीन किलों रूई में भरी रजाई 325 से 500 रु. तक तथा ढाई किलो रूई में भरा भराया गद्दा 250 से 350 रुपए तक में मिल रहा है। खाली रजाई कम से कम 250 रुपए तथा गद्दा 150 से कम का नहीं मिल रहा है।
रूई व्यापारी रफीक मंसूरी बताते है कि यह कार्य उनके पुरखों के जमाने से चला आ रहा है। पहले देशी रूई हर आम और खास की पंसद होती थी, लेकिन जब से इसके दाम बढ़े है तो गरीब अपनी रजाईयों में तो मध्यम वर्ग के लोग गद्दों में चिन्दी वाली रूई भरवा कर काम चला रहे हैं। कपड़ों की कतरन से बनने वाली यह रूई न होती तो गरीबों को ठंड का मौसम बिताना मुश्किल होता। रूई के दाम बढ़ने से व्यापार पर भी असर पड़ा है।
रुई व्यापारी मोहम्मद शरीफ मंसूरी का कहना है कि भले ही देशी रूई के दाम बढ़ गए है, लेकिन वह चिन्दी वाली रूई के मुकाबले आज भी सस्ती है। इसका गणित यह है कि, चिन्दी वाली रूई एक बार भरने के बाद दो तीन साल के बाद दोबारा काम में नहीं आती, लेकिन देशी रूई दो तीन साल बाद नहीं बल्कि हर दो तीन साल के बाद कई बार धुनकवा कर भरवा सकते है। एक बार पैसा जरूर लगता है।
